Thursday 7 November 2013

छठ-गीत

मेरी आवाज़ और मेरी बेटी शाम्भवी की आवाज़ में छठ-पर्व पर दो छठ-गीत प्रस्तुत हैं...


Monday 4 November 2013

वाह क्या बात है

राजनीति में नेता,
कुर्सी का  चहेता,
वाह क्या बात है......

दाम में बढ़ोत्तरी,
इंसानियत में घटोतरी,
वाह क्या बात है....

शादी में शहनाई,
बाजार में महंगाई,
वाह क्या बात है.....

बीमारी में महामारी,
राजनीति में भ्रष्टाचारी,
वाह क्या बात है.....

Friday 16 August 2013

Wednesday 17 July 2013

काश ! मैं बच्चा होता


         माँ ! माँ ! मैं फिर से बच्चा बनना चाहता हूँ | मुझे अपने आंचल में छुपा लो माँ ! मुझे वही कहानी सुनाओ जो सुनाया करती थी | मैं इस देश दुनियां से अनभिज्ञ रहना चाहता हूँ | मैं इन लोगों का रुदन बरदाश्त नहीं कर पाऊंगा | भ्रष्टाचार की डरावनी चीखें, भूखमरी के  विलाप से अच्छा है कि मैं बच्चा ही रहूँ,  कभी बड़ा न होऊं  |

काश ! मैं बच्चा होता,
खाता खेलता हँसता,
लोरी सुनकर सोता,
काश ! मैं बच्चा होता |

काश ! मैं बच्चा होता,
सुख सपनों में खोता,
चाद तारों के लिए रोता,
काश ! मैं बच्चा होता |

काश ! मैं बच्चा होता,
नानी, दादी से कहानी सुनता,
माँ के आंचल में छुपकर सोता,
काश ! मैं बच्चा होता |

काश ! मैं बच्चा होता,
माँ के हाथों रोटी खाता,
भूखमरी, बेरोजगारी से न रोता,
काश ! मैं बच्चा होता |

Saturday 6 July 2013

क्यों ? क्यों ? क्यों ?



    मै चुप हूँ, क्यों ? क्योंकि मैं दर्द से व्याकुल हूँ | घुटन हो रही है, मैं दर्द का बयाँ किससे करूं | क्यों करूं ? मेरे लिए चुप रहना क्यों बहुत अहम है ? क्योंकि अपना दर्द बयाँ करते हुए डर लगता है | यदि मैं ईश्वर से कहूँ तो , ईश्वर सर्वव्यापक है उनसे कहने की जरूरत ही क्या है | वह सब देख रहा है | फिर ऐसी लीला क्यों ? यदि मैं इंसान से कहूँ तो क्यों ? जो संवेदनहीन हो गया, अपनी मानवता को खो चुका है और दरिंदगी को अपना लिया है | इससे तो अच्छा है मैं चुप ही रहूँ लेकिन ये आंसुओ का सैलाब जो मेरे नेत्र से निकल रहे हैं | इसे कैसे बंद करूं या उस इंसानियत को खोजने की कोशिश करूं जो कहीं खो गयी है | नही मुझे अब इंसानियत में भी खोट नजर आ रही है | सत्य में भी असत्य की झलक महसूस हो रही है | ये मैं क्यों कह रही हूँ क्योंकि मैं भी सशंकित हूँ | क्या सत्य है क्या असत्य है, मुझे तो कुछ समझ में नहीं आ रहा है |
                                   - समाज में व्याप्त इंसान की संवेदनहीनता के लिए   

Tuesday 25 June 2013

विनाशकारी घटना

    उत्तराखंड के इस विनाशकारी घटना को देखकर दिल दहल गया | हे भगवान ! ये क्या हुआ ? हर पल उन लोगों की सलामती का दुआ करती रही कि भगवान सभी को सलामत रखे लेकिन जब मैंने टीवी पर एक पिता के मुख से उसके बेटे की मौत की दर्दनाक घटना के बारे में सुना, लुटेरों के बारे में सुना तो सन्न रह गयी | इतनी अमानवीयता ! इस अमानवीयता की जितनी भर्त्सना की जाय कम है |

Friday 1 March 2013

लोक साहित्य

           लोक साहित्य आधुनिक हिन्दी का श्ब्द है यह दो शब्दो के योग से बना है लोक और साहित्य। साहित्य का अर्थ तो सभी जानते हैं परन्तु लोक शब्द का प्रयोग एक विशिष्ट अर्थ देता है । लोक -साहित्य जनता का वह साहित्य है जो जनता द्वारा जनता के लिए लिखा गया है। लोक साहित्य लोक मानस की सहज और स्वभाविक अभिव्यक्ति है। जो अपनी मौखिक परम्परा द्वारा एक पीढी से दूसरी पीढी तक बढता रहता है । उसकी आशा -निराशा, हर्ष-विषाद, जीवन-मरण, लाभ- हानि, सुख- दुख आदि की अभिव्यंजना जिस साहित्य में होती है, वह लोक साहित्य है जो गीतों और कहानियों के माध्यम से अपने हार्दिक सुख- दुख की भावनाओं का प्रकाशन करता है।
                लोक साहित्य के अन्तर्गत लोक गीत, लोककथा, लोककहानी, चुटकुले, पहेलिया, कहावते, मन्त्र आदि समाहित है। लोक गीत जो बहुत ही ह्दयस्पर्शी होते हैं ।
-----------------                                                      
" काहे को ब्याही विदेश, रे लक्खी  बाबुल मोरे
भइया को दीन्हें महल दुमहले, हमको दियो परदेश रे"
ऎसे ही मै एक गीत लिख रही हूँ शायद आपकी दिल को छू जाय--------
बाबू जी हो सोचल विचरल न मतिया
 धिया के वियहल बिपतिये में
कन्यादान पहिले तू कुछु ना जनवल
मूरख गवार हाथे बेटी के लगवल
हुडु.क समाइल हमरा छतिया में
बाबू जी हो सोचल विचरल न मतिया
गोदिया मे खेलनी अगनवा दुवरवा
सान्झी दुपहरिया मे घर से बहरवा
सपना देखिला इहे रतिया में
बाबू जी हो सोचल विचरल न मतिया
सासु ननद जी के भावे नाही बतिया
देवरु पिया के चाही होन्डाकार थतिया
ससुरा के मन दवलतिये में
बाबू जी हो सोचल विचरल न मतिया
होई गइली रतिया सुहागवा सपनवा
पल-पल बरिस बुझाला हमरा मनवा
सुख के सिंगरवा अफ़तिये में
बाबू जी हो सोचल विचरल न मतिया
हाय; माई बाबू जी हो इहे बा खबरिया
भेज दीह भइया संगे कइसनो सवरिया
जीयतानी कइसहूं ससतिये में
बाबू जी हो सोचल विचरल न मतिया
फ़ूके के तयारी होता फ़ांसी के जतनवा
करता धक धक जीयरा परनवा
छूटि गईली देह दुरगतिये में
बाबू जी हो सोचल विचरल न मतिया